Friday, December 4, 2015

A great lesson for journalism by journalist kalpesh yagnik


चेन्नई में जब लोग बाढ़ से लड़ रहे हैं, सारा देश साथ खड़ा है-तब मैं ये कैसी पत्रकारिता कर रहा हूं?


पढ़ें कल्पेश याग्निक का कॉलम : ‘असंभव के विरुद्ध’

पत्रकारिता की दिशा बदलनी ही होगी। नौजवान पत्रकार बदलेंगे। वे अपने संपादकों को ही मना कर देंगे। कहेंगे कि नहीं, संकट के समय तो सिर्फ जांबाजों को दिखाएंगे। मुकाबला, साहस और मानवीय क्षमताओं को दिखाएंगे। पर्यावरण से छेड़खानी की खबरें बाद में देंगे और छेड़खानी करने भी नहीं देंगे। न अवैध निर्माण होने देंगे। वॉचडाॅग की तरह सब पर निगाह रखेंगे। धारा बदलेगी ही।
‘जानते हैं अभी तक ‘हिन्दुओं ने मुस्लिम बस्ती में दिया पहरा’, ‘मुसलमान भाइयों ने बहती हिन्दू बच्ची को बचाया’ -जैसी खबरी चेन्नई से क्यों नहीं आईं? क्योंकि न तो बचाने वालों के पास मीडिया को अपना परिचय देेने का समय है, न बचने वालों के पास। बाद में ढूंढ लाएंगे।
- एक निरपेक्ष कटाक्ष

महान् तमिल महाकाव्य सिलापतिकरम में पानी की प्रचंडता का वर्णन है। ‘रौद्र लहरों की ऊंचाई जैसे पहाड़ों के बराबर थी। धरती पर इकट्‌ठा हो - पानी जैसे गरजकर काले बादलों को छू रहा था।’

ये भयावहता कोई दो हजार वर्ष पहले महाकवि एलांगो अड़िंगल ने उक्त ग्रंथ में लिखी थी - जिसे तमिल साहित्य के सर्वश्रेष्ठ पांच महाकाव्यों में स्थान प्राप्त है। किसे पता था ऐसा ही कुछ दृश्य इस आधुनिक युग में, 21वीं सदी में अाएगा।

किन्तु चेन्नई वासियों ने समूचे संसार को दिखा दिया कि भीषण त्रासदी में डटे कैसे रहना। कैसे जीना। कैसे जीत जाना।
प्रथम भारतीय जो ठहरे- द्रविड़।

इसी तरह देश ने भी दिखा दिया। कि कंधे से कंधा मिलाकर खड़े होना किसे कहते हैं। सेना किसे कहते हैं।
किन्तु एक अपराध बोध मुझ में है। पत्रकार के रूप में।

और उसे करोड़ों पाठकों के कन्फेशन बॉक्स के सामने स्वीकार करने का साहस जुटा पाने का कारण है। कारण यह है कि मेरा भी दिल चेन्नई वासियों के लिए धड़कता है। मेरी भावनाएं भी उनके लिए उतनी ही अधिक हैं जितनी उन लोगों की जो वहां उनकी सहायता में अपने आप को झोंके हुए हैं। मैं भी इस महाजलप्लावन में समय पूर्व समाधि ले चुके अनेक माता-पिता, भाई-बहनों के दु:ख से हिला हुआ हूं। मैं, सारा मीडिया, सभी पत्रकार आपके लिए कुछ करना चाहतेे हैं।
किन्तु इतना कुछ चाहने के बावजूद, पत्रकार के रूप में मैंने यह क्या कर डाला? उसी अपराध की स्वीकारोक्ति।
1. मैंने पहले दिन तो इस भीषण अतिवृष्टि को कवर तक नहीं किया।

2. दूसरे दिन भी मैंने भारी वर्षा तो कवर की -किन्तु ‘नेशनल मीडिया’ में इसे अधिकतर ने पहले दिन प्रमुखता नहीं दी- यह कहकर बचता रहा।

3. फिर पत्रकारिता जाग गई। गंभीरता से। गहराई से।

4. इस बीच सोशल मीडिया ने पहले 24 घंटे मीडिया की चुप्पी पर तीखे प्रहार शुरू कर दिए। तब मेरी आंखें और खुलीं। चेन्नई के नागरिक सुजीत कुमार ने गिनाया कि इस दौरान मीडिया के लिए क्या प्राथमिकता रही (अ) कांग्रेस-भाजपा के बीच छापों को लेकर आरोप-प्रत्यारोप, (ब) संसद में मंत्रियों के भाषण (स) आमिर खान का बयान उस पर बहस और (द) पूरा पिछला सप्ताह असहिष्णुता पर समाचार-विचार।

5. फिर मैंने देखा चेन्नई की त्रासदी पर समूचा राष्ट्र बात कर रहा है। कोने-कोने में महिलाएं फोन पर पारिवारिक बातें करते-करते चेन्नई में ऐसा हो गया, वो एक सड़क पूरी नदी बन गई, बच्ची को कितनी मेहनत से बचाया-ऐसी बातें करने लगीं।

जिस विषय पर महिलाएं बातें करने लगें - मीडिया के लिए सबसे बड़ा विषय वही होना चाहिए। पत्रकारिता ऐसा सिखाती है। क्योंकि महिलाएं उसी विषय पर बात करती हैं जो घर-घर की कहानी होगी। जो परिवार से जुड़ा होगा। जो बच्चों से संबंधित होगा। जिसमें भावना होगी। करुणा होगी। और पत्रकारिता इन्हीं मूल्यों का दर्पण है। यानी होना चाहिए।

तमिल भूमि चेर, पाण्ड्यन व चाेल राजाओं की भूमि है। कहते हैं चोल साम्राज्य का भव्य विस्तार का आधार सुशासन का एक अलग ही मूलमंत्र था। वे कहते थे यदि ब्याह कर लाई गई बहू प्रसन्न है - तो ही राजा व राज्य सफल है। चंूकि बहू दु:खी हुई तो घर में झगड़े होंगे। गृहकलह से त्रस्त श्वसुर घर के बाहर मिलने-बैठने वालों में रोष, क्रोध, कुंठा व्यक्त करेगा। फिर सभी ऐसा करने लगेंगे। नकारात्मकता फैलेगी। सभी अप्रसन्न रहने लगेंगे। इससे त्रस्त प्रजा, राजा व राज्य को कोसने लगेगी। इसलिए तब भारतवर्ष के अन्य क्षेत्रों में कहते थे बेटी की शादी तो चोल नेतृत्व वाले तमिल भूभाग पर बसे परिवारों में होनी चाहिए। वहां बहू को प्रसन्न रख, सभी खुश रहते हैं।

किन्तु यह तो विषय से हटना हो गया। बात मीडिया के रुझान की थी। फिर चेन्नई त्रासदी का व्यापक कवरेज शुरू हुआ।
6. किन्तु ट्विटर पर एक और तरह से अाक्रोश फूटा। लिखा गया: 
धन्यवाद। हमारे संकट को कवर करने का। छि। शेम ऑन यू।
किन्तु मेरा अपराध बोध यह नहीं है।

मुझे तो अपनी पत्रकारिता के पुरातन बने रहने का दु:ख है।
यानी जो किसी युग में मुझे मीडिया का विशेष काम लगता था - अाज भी मैं उसे ही ढो रहा हूं। जबकि पाठक-दर्शक-श्रोता कभी के आगे बढ़ गए हैं।
तो मेरे अपराधों की सूची यह है:
* खाने के पैकेट पहुंचाए जा रहे हैं - मैं इसके फोटो छाप रहा हूं। इसके फुटेज दिखा रहा हूं। इसके समाचार चला रहा हूं। क्यों? क्यों कर रहा हूं मैं ऐसा?

क्योंकि आज मैं स्वयं सोचता हूं कि यदि बाढ़ आ गई हो या भूकम्प या तूफान - मनुष्य का धर्म है कि वहां यदि पहुंचा सकता हो तो खाना पहुंचाए। यही सरकार का कर्तव्य है। सामाजिक संस्थाएं ऐसा करती ही हैं। भारतीय तो विश्व में साथ देने के लिए जाने ही जाते हैं।
फिर खाना पहुंचाना समाचार कैसे हुअा?
हां, एक छत पर बदहाल, फंसे परिवार ने सेना के हेलीकॉप्टर से पहुंचाए जा रहे पैकेट्स को और लेने से मना कर दिया। कहा - बाकी को भी देना है। उनके काम आएंगे।
ये दिखानी जरूरी है। जज़्बा जगाती है।
* सरकार ने ये नहीं किया, वो नहीं किया - मैं यह प्रश्न उठा रहा हूं। पुराने पापों का ब्योरा दिखा रहा हूं। क्यों? क्या हो जाएगा आज ऐसा दिखाने से?

क्योंकि आज मुझे समझना यह आवश्यक है कि अभी तात्कालिकता किस बात की है? सरकार की कमियां गिनाने की - या सब एकजुट हो -सहायता करें- इसकी।
हरिवंशराय बच्चन ने गहरा वार किया है -
किसने किया शर का संधान
कैसे हुआ शर का संधान
किस किस्म का है बाण...
अरे, ये सब बातें तो है बाद की
पहले तीर को तो निकाल
तीर... तीर... तीर पीर... पीर... पीर।
सचमुच चेन्नईवासी जिस भयंकर काल से जूझ रहे हैं - तब उनकी पीर, पीड़ा को दूर करने की जगह मैं तो कमियों के बारे में बात कर उन्हें और गहरे घाव ही तो दे रहा हूं।
* नदियों की जमीन पर, तालाबों पर, पोखर पर बड़ी-बड़ी अट्‌टालिकाएं तान दी गई हैं। खुली जमीनों पर कल-कारखाने लगा दिए गए हैं। पर्यावरण को भारी हानि पहुंचाई है। इसलिए बाढ़ आई चेन्नई में। ये बता रहा हूं मैं। क्यों?

समूचा संसार ऐसे तथ्यों को जानता है। कश्मीर की बाढ़ हो या बिहार की। उड़ीसा का तूफान हो या आंध्र का। या कि भीषण केदार त्रासदी। मैं यही, ऐसे ही प्रश्न पूरी ताकत से उठाता हूं। फिर? फिर भूल जाता हूं। कभी पीछे नहीं पड़ा। कि एक बार संकट से उबर जाएं - तो पुनर्वास का काम सही नीयत से हो। फिर सरकारी घपले, घोटाले, भ्रष्टाचार के कारण पनपते अवैध निर्माणों व नदियों, मैदानों को निगलने पर पैनी दृष्टि रखूं। खोजपरक पत्रकारिता करूं। शोधपरक पत्रकारिता दिखाऊं। ऐसा कहां करता हूं मैं?

एक त्रासदी हुई। ये सब उठाया। फिर दूसरी त्रासदी तक सौहार्द्र। आज तक मुंबई में आई भीषण बाढ़ का कारण बनी मीठी नदी पर जो भी कुछ काम करना था कुछ भी नहीं हुआ है।
एक और बड़ा अपराध बोध।

जापान में सुनामी आई। आग लग गई। हमारा हेडलाइन था : जल से जला जापान। फिर मैंने खबर करवाई - पांच बातें जो हम जापान से सीख सकते हैं।
उसमें यही लिखा। कि देखिए जापान ने मदद के फोटो नहीं छापे। देखिए जापान ने ऐसा नहीं दिखाया। वैसा नहीं किया। वे देखिए तेज़ी से उबर गए।
फिर मैंने पेरिस हमले के बाद भी यही लिखा। कि देखिए पेरिस ने खून बहने के फोटो नहीं छापे। टीवी पर लाशों के ढेर नहीं दिखाए। आरोप-प्रत्यारोप नहीं बताए।
* विदेशों में हो - तो मुझे अच्छा लगता है। आदर्श लगता है। मेरे वतन में होते ही, अवसर संवेदना व संवेदनशीलता दिखाने का आते ही -मैं गांभीर्य त्याग कर- खाने के पैकेट ढूंढ़ने लगता हूं। कमियां, आरोप सब ले आता हूं।
अपने ट्विटर, फेसबुक, व्हॉट्सएप अकाउंट पर भी संयम के वीडियो तो विदेशी शेयर करता हूं - किन्तु अपनी मातृभूमि की या तो आलोचना, या निंदा या ताना या मखौल उड़ाता हूं।

चेन्नई की हर लड़ाई, हर संघर्ष समूचे देश का है। जो कुछ भी जिससे भी, जिस भी तरीके से करते बन रहा है - वो कर रहा है। कोई अच्छा सोच भी रहा है उनके लिए तो समझो कर रहा है।

किसी को भी इस समय ज़्यादा मदद या कम मदद वाली परिभाषा में लाना भूल होगी। क्योंकि संसार का सबसे निर्मम, निर्दयी और अकर्मण्य व्यक्ति भी यदि वहां हो या वहां से गुजर रहा हो - और कोई ऐसे संकट में दिखे -तो आपको क्या लगता है- वो मदद करेगा या नहीं? निश्चित करेगा। मनुष्य है। भारतीय है। मनुष्य ही मनुष्य के काम आता है।
चेन्नई त्रासदी से हम सभी ऐसी सीख ले सकेंगे, असंभव है। किन्तु लेनी ही होगी।
(लेखक दैनिक भास्कर के ग्रुप एडिटर हैं।)

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