Monday, July 25, 2011

जवाब नहीं....

मैंने देखा,
दर्द से तडपते बूढे बाप को,
उनके आंसुओं में अपने आपको।
क्‍यों झेलता है वो रिश्‍तों के शाप को,
इंसान खो देता है रिश्‍तों में अपने आपको।
मैंने देखा है,
उनकी पथराई आंखों के सपनो को,
उनके भूले बिसरे अपनों को,
तिनका तिनका बिखरे अरमानों को,
तिल तिल के मरते स्‍वाभिमानों को।
मैंने देखा है,
जो निभातें हैं हर रिश्‍ते चुपचाप,
अपने लिए न रखते कोई हिसाब,
फिर भी उनकी इज्‍जत बेलिबास।
मैंने देखा है,
बाप के पसीनों से रिस्‍तों के लहू बनते,
उनके अरमानों तले परिवार के सपने सजते,
उस बाप के सपने भी पानी से बहते हैं,
जिस सपने और खून से हम बनते हैं।
मैंने देखा है,
दर्द से तडपते बूढे बाप को।
(अज्ञात रचनाकार का मर्म)


ज़िन्दगी का दरख्त
हो गया है ज़र्जर
समय की दीमक ने
कर दी हैं जड़ें खोखली
तनाव के थपेड़ों ने
झुलस दी है छाल
ख्वाहिशों के पत्ते
अब सूखने लगे हैं
और झर जाते हैं
प्रतिदिन स्वयं ही .
परिस्थितियों की आँधियाँ
उड़ा ले जाती हैं दूर
और जो बच जाते हैं
कहीं इर्द - गिर्द
उन पर अपनों के ही
चलने से होती है
आवाज़ चरमराहट की
उस आवाज़ के साथ ही
टूट जाती हैं सारी उम्मीदें
और ख़त्म हो जाती हैं
सूखी हुई ख्वाहिशे .