Sunday, February 20, 2011

चंद अहसास................

ये सर्द रात.....ये आवारगी....ये नींद का बोझ,
मैं अपने शहर में होता तो घर चला जाता........

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अपने चेहरे से जो जाहिर है छुपाएं कैसे,
तेरी मर्जी के मुताबिक नजर आएं कैसे
घर सजाने का तसव्‍वुर तो बहुत बाद का है,
पहले यह तय हो कि इस घर को बचाएं कैसे
कहकहा आंख का बर्ताव बदल देता है,
हंसने वाले तुझे आंसू नजर आए कैसे
कोई अपनी ही नजर से तो हमें देखेगा,
एक कतरे को समंदर नजर आएं कैसे.......

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दूर से दूर तलक एक भी दरख्‍त न था,
तुम्‍हारे घर का सफर इस कदर तो सख्‍त न था
इतने मसरूफ थे हम जाने की तैयारी में,
खडे थे तुम और तुम्‍हे देखने का वक्‍त न था
मैं जिस खोज में खुद खो गया था मेले में,
कहीं वो मरा ही अहसास तो कमबख्‍त न था
शराब कर के पिया उसने जहर जीवन भर,
हमारे शहर में उस जैसा कोई मस्‍त न था
गोपाल दास नीरज.........