संभवत:
चौथी या पांचवीं क्लास में तब मैं पढ़ रहा था जबकि अखबार की एक हेडिंग
में जनसंख्या विस्फोट शब्द से सामना हुआ। तब पूछने पर मुझे समझाने की
कोशिश की तो गई लेकिन पल्ले नहीं पड़ा। बाद में आगे की पढ़ाई के साथ यह
जनसंख्या विस्फोट और उससे जुड़े कई लेख आदि पढ़ने सुनने को मिलते रहे।
चूंकि मसला अपने देश में तेजी से बढ़ती आबादी से जुड़ा था तो उच्चशिक्षा
के दौरान इसे लेकर जब तब जहां कुछ सामने आता पढ़ते-देखते हुए अधिक समझने की
कोशिश करता। इस दौरान ही देश में कहीं दर्शन-पूजन तो कहीं मेले आदि के
दौरान भगदड़ होने लगी और जानों के जाने का सिलसिला सामने आने लगा। रेलवे
स्टेशनों की भी भगदड़ में मरने वालों के वाकये सामने आने लगे। अब
व्यावहारिक तौर पर समझ में आने लगा कि जनसंख्या विस्फोट से सिर्फ मांग
और आपूर्ति के बीच गहरी खाई ही नहीं बनेगी, सिर्फ संसाधनों की कमी ही नहीं
आड़े आएगी, सिर्फ शहरों से लेकर सड़कों तक पर भीड़ ही नहीं बढ़ेगी बल्कि
इंसान चींटियों की तरह कुचला जाएगा। अब भगदड़ का दौर बढ़ने लगा है। जो
घटनाएं पहले साल में एकाध होती थीं अब दर्जनों हो जाती हैं। दशहरे के ठीक
एक दिन पहले मुंबई के एलफिंस्टन रेलवे स्टेशन पर भी ऐसा ही हुआ। कोई घर
को लौट रहा था तो कोई माया नगरी घूमने पहुंचा रहा होगा। न जाने कौन किस काम
से जा रहा था और भगदड़ की भेंट चढ़ते हुए जान गंवा बैठा। हां, यह बेहद
जरूरी है कि बढ़ती आबादी के मद्देनजर संसाधनाअों और सुविधाओं में बढ़ोतरी
की जानी चाहिए। लेकिन, इस हकीकत को भी स्वीकार करना होगा कि शहरों में
आबादी ओवरफ्लो की सीमा से भी आगे बढ़ चुकी है। अब शहर बढ़ाए जाने से बात
नहीं बनेगी बल्कि जहां से आबादी का पलायन होता है उन गांवों तक रोजगार के
इंतजाम करने होंगे।
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